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पहाड़, यहां की नदियां, रूई की तरह दिखने वाली बर्फ…..और पहाड़ों के नीचे से गुजरते बादलों के फाहें, बेशक यह सब हर किसी को अपनी ओर आकर्षित करें। लेकिन प्रकृति के इस नजारे का दूसरा रूप बेहद भयानक होता है। इस रूप से 31 जुलाई 2001 को जब मेरा सामने हुआ था। तो मैंने बेहद नजदीक से प्रकृति के डर को देखा था। वो रात आज भी मेरी आंखों के सामने आती है और उस समय का शोर आज भी कानों में साफ सुनाई देता है। वो ऐसा मंजर था, कि मानों कोई भयानक सपना देखा जा रहा हो। लेकिन यह सब हकीकत था। 31 जुलाई 2001 को मैं एक कार्य से अपने घर से दो किमी दूर बैजनाथ गया था, रात्रि को करीब साढ़े 12 बजे वापस अपने घर पपरोला लौट रहा था। उस समय यह पता नहीं होता था कि बादल फटना होता क्या है। जैसे ही मैं बैजनाथ व पपरोला के मध्य बने बिनवा दरिया के पुल (ब्यास नदी की बड़ी सहायक दरिया) के उपर पहुंचा, तो उस समय हल्की बारिश लगी हुई थी, लेकिन उस समय पानी का स्तर व पत्थरों की गडग़ड़ाहट काफी तेज थी। जैसा आम तौर पर बरसात में होता था। मैं अपने मोटरसाइकिल की लौ के सहारे दरिया को देखना चाहा, तो केवल मटमैला पानी दिखा और उससे काफी बदबू उठ रही थी। पुल के ठीक नीचे बिनवा के किनारे एक देसी शराब की लाईसेंस शुदा भट्ठी थी। वहां एक मध्यम बिजली का बल्ब जल रहा था। तभी बेहद गर्जना के साथ ऐसा लगा मानों बिनवा दरिया के उपर से कोई बेहद बड़ी चट्टान बहकर आ रही है। इतनी खतरनाक आवाज की आज भी मेरे कानों पर सुनाई देती है। अगले ही पल जो मेरे सामने दृश्य था, वैसा दृश्य शायद कभी सपने में भी नहीं देखा था। बिनवा में पानी का एकदम से इतना सैलाब आया कि राष्ट्रीय राजमार्ग पर बना बिनवा पुल भी कांपने लगा। मैं तुरंत वहां से बैजनाथ की तरफ भाग। क्योंकि बिनवा पुल सामने बारिश के कारण बेहद पानी गिर रहा था। कुछ ही पलों में बिनवा में इतनी पानी आया किबिनवा दरिया के जिस पुल में मै खड़ा था पानी उसके काफी करीब पहुंचने लगा। उस पुल के नीचे एक पुराना लोहे का पुल है। बिनवा का पानी उसके उपर से गुजर गया। नीचे स्थित शराब की भट्ठी से काफी मुश्किल से बचकर दो लोग उपर पहुंचे। हर तरफ एक अजीब सा शोर था। पत्थरों का ऐसा शोर की मानों प्रकृति मानव के नाश पर उतर आई हो और पत्थरों की गडग़ड़ाहट से उठ रहे शोर के संगीत के सहारे इस विनाश का आंनद प्रकृति उठा रही हो। उस पल मैं पूरी तरह से सिहर उठा था, मैं बेहद डर गया था। क्योंकि जिस स्थान में मैं फंसा था। वहां ल्हासे गिरने का भी खतरा था। चारों ओर अंधेरा और बारिश का मंजर था। दरिया के शोर को सुनकर वहां कुछ वाहन भी रूक गए। कुछ ओर लोग भी पहुंचे। लेकिन रात्रि होने के कारण किसी को कुछ पता नहीं चला। जब सुबह की पहल किरण निकली, तो जो विनाश का मंजर हमारे सामने था। उसने हर किसी की पैरों तले जमीन खिसका दी। बिनवा दरिया में पानी की ऊंचाई के बने निशानों ने हर किसी को चकित कर दिया और बैजनाथ में ही एक स्थान पर करीब एक किलोमीटर के हिस्से में बिनवा ने अपना रास्ता ही बदल लिया था। जब बिनवा की किनारे उपरी क्षेत्रों में रहने वालों की बात पता चली, तो असली नुकसान का पता चला। बादल फटने के कारण हुए विनाश की यह लीला करीब 25 लोगों व एक हजार के करीब मवेशियों को निगल चुकी थी। कई बड़े पुल व भवन बह चुके थे। बिनवा पावर हाउस को बचाते बचाते एक कर्मचारी के सबसे पहले बहने की भी जानकारी मिली। लेकिन वह पानी बढऩे से बढ़ रहे खतरे को भांपते हुए पावर हाउस के गेट बंद कर एक बड़े नुकसान को होने से बचा गया था। उस समय पता चला कि प्रकृति का विनाश होता क्या है। जो प्रकृति खूबसूरत लगती है। उसका एक रूप ऐसा भी हो सकता है। इसके ठीक एक वर्ष बाद इस इलाके में एक बार फिर बादल फटा था और लूणी नाले के किनारे बसे एक गांव लुलाणी तथा वहां रह रहे करीब 12 लोगों को इस कदर बहा ले गया था कि उस क्षेत्र के लोग आज भी खुशहाल नहीं हो पाए है। ऐसे में पहाड़ में रहने वाले लोग ही जब ऐसे प्रकृति आपदाओं से अपने आप को पूरी तरह से सुरक्षित नहीं रख पाते है, तो मैदान से पहाड़ों की सौंदर्य को देखने आने वाले लोग क्या कर सकते हैं। यह आप खुद ही समझ सकते है।
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