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सियासी शतरंज में जीत के बाद कुर्सी का तोहफा मिलता है। जाहिर है कुर्सी की ही लड़ाई के लिए कई चालें चली जाती है, जो जीता कुर्सी उसी की। लेकिन देश में एक प्रदेश ऐसा भी है, जहां कुर्सी से अधिक टोपी की लड़ाई चलती है। बेशक इस लड़ाई का भी अंत कुर्सी तक ही पहुंचता है। लेकिन यहां कुर्सी से अधिक टोपी की साख की चिंता होती है। यह प्रदेश है हिमाचल-प्रदेश। देवभूमि कहे जाने वाले इस प्रदेश में सियासत की लड़ाई अब तेज होने लगी है। पहले बेहद शांत इस प्रदेश की सियासत की लड़ाई में केवल मुंह से ही बार किए जाते थे। लेकिन कुछ दिन पहले विधानसभा में पहली बार कुछ विधायकों ने हाथों का भी प्रयोग कर डाला। भई, होना भी चाहिए था। सभी प्रदेश इस मामले में आगे बढ़ रहे है, तो आधुनिकता की चकाचौंध की कुछ रोशनी तो यहां तक भी पहुंचनी चाहिए थी, तो पहुंच गई। लेकिन टोपी की लड़ाई यहां अब भी जारी है। बाहरी प्रदेशों व देशों से यहां जब पर्यटक आते है, तो वह हिमाचल की टोपी अपने साथ ले जाना नहीं भूलते। लेकिन वह शायद यह नहीं जानते कि यह टोपी महज हिमाचल की निशानी ही नहीं बल्कि सियासतदारों की इच्जत भी है। हिमाचल में दो तरह की टोपियां मिलती है। पहली टोपी कुल्लू की टोपी। यह टोपी एक समय में बहुत ही प्रसिद्ध हुआ करती थी। मगर इसके बाद किन्नौर की टोपी ने इसका स्थान ले लिया। हरे रंग की पट्टी के साथ निकली यह गोल टोपी बेहद आकर्षक लगती है। लेकिन टोपी की सियासी खेल में यह टोपी कांग्रेस की कब हो गई किसे पता ही नहीं चला। ओर एक समय अब यह आ गया है कि हिमाचल में अगर किसी ने यह टोपी पहनी है, तो उससे पूछने की जरूरत ही नहीं कि भाई आप किसी पार्टी से है। यह टोपी ही सब बताती है कि जिन शख्स के सिर के उपर वह विराजमान है वह शख्स कोई ओर नहीं बल्कि कांग्रेस पार्टी के नेता या कार्यकर्ता है। जैसे-जैसे कांग्रेस के राज की प्रदेश में दस्तक होने लगती है हजारों नहीं लाखों सिरों के उपर हरी टोपी यूं निकल आती है, मानों बसंत की तरह हरी टोपियों का भी कोई मौसम आ गया हो। अब भाजपा भी इस दौड़ में कहां पीछे रहे, भाजपा ने भी कुछ वर्ष पहले इसी तरह की लाल व मैरून रंग की एक टोपी पर कब्जा कर लिया। अब जिस भी सर पर यह टोपी सजी हो तो समझा लिजिए की भाई साहब भाजपा के है। कुछ वर्ष पहले कांग्रेस से अगल थलग हुए मेजर विजय सिंह मनकोटिया ने भी टोपी की सियासत के महत्व को समझते हुए पीले व काले रंग की एक किश्ती टोपी निकाल डाली। जिस देख साफ लगता था कि यह कार्यकर्ता या नेता मेजर मनकोटिया की पार्टी का है। इस दौड़ में बसपा भी हिमाचल में पीछे नहीं रही और गोल नीले रंग की पट्टी वाली हिमाचली टोपी पर कब्जा कर लिया। अब इस दौड़ में केवल कुल्लू की एक गोल टोपी शेष रह गई है। जो शायद अब भी किसी शख्स के बारे में यह ही बताती है कि इस टोपी को पहने साहब कोई नेता या किसी पार्टी के कार्यकर्ता नहीं बल्कि हिमाचल के एक वोटर है। मगर न जाने क्यों यह टोपी भी अब डरी सहमी सी है कि अब हिमाचल में कुल्लू के राजा यानि महेश्वर सिंह ने हिमाचल लोकहित पार्टी का गठन कर डाला है, तो इसे कुल्लू की टोपी पर हिलोपा अपना कब्जा न कर ले। चलो जो भी हो, लेकिन हिमाचल में एक बात तो साफ है कि टोपी पार्टी की निशानी भी बता रही है और चुनाव से पहले जिन टोपियों की संख्या प्रदेश में अधिक दिखती है, उसकी सरकार बनना भी तय होता है। यानि यहां सर्वे चैनल नहीं बल्कि टोपी करती है।
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